दुर्लभ "भारत-नेपाल मैत्री कविता" - हरिवंशराय बच्चन
जग के सबसे उँचे पर्वत की छाया के वासी हम।
- बीते युग के तम का पर्दा
- फाड़ो, देखो, उसके पार
- पुरखे एक तुम्हारे-मेरे,
- एक हमारे सिरजनहार,
और हमारी नस-नाड़ी में बहती एक लहू की धार।
- एक हमारे अंतर्मन पर,
- शासन करते भाव-विचार।
- आओ अपनी गति-मति जानें,
- अपना सच्चा
- क़द पहचानें,
जग के सबसे ऊँचे पर्वत की छाया के वासी हम।
- पशुपति नाथ जटा से निकले
- जो गंगा की पावन धार,
- बहे निरंतर, थमे कहीं तो
- रामेश्वर के पांव पखार,
गौरीशंकर सुने कुमारी कन्या के मन की मनुहार।
- गौतम-गाँधी-जनक-जवाहर
- त्रिभुवन-जन-हितकर उद्गार
- दोनों देशों में छा जाएँ,
- दोनों का सौभाग्य सजाएँ,
- दोनों दुनिया
- को दिखलायें,
अपनी उन्नति, सबकी उन्नति करने के अभिलाषी हम।
जग के सबसे ऊँचे पर्वत की छाया के वासी हम।
जग के सबसे ऊँचे पर्वत की छाया के वासी हम।
- एक साथ जय हिन्द कहें हम,
- एक साथ हम जय नेपाल,
- एक दूसरे को पहनाएँ
- आज परस्पर हम जयमाल,
एक दूसरे को हम भेंटें फैला अपने बाहु विशाल,
- अपने मानस के अंदर से
- आशंका, भय, भेद निकाल।
- खल-खोटों का छल पहचानें,
- हिल-मिल रहने का बल जानें,
- एक दूसरे
- को सम्माने,
शांति-प्रेम से जीने, जीने देने के विश्वासी हम।
जग के सबसे ऊँचे पर्वत की छाया के वासी हम।
जग के सबसे ऊँचे पर्वत की छाया के वासी हम।