भारतीय संस्कृति में रचे बसे जनजाति विषयक लोक गीत गाहे बगाहे हिन्दी फिल्मो के रुपहले परदे पर देखने को मिल जाता है । उसी कड़ी में कई साल पहले, तकरीबन 44 साल पहले आई " तलाश' नाम की फिल्म में एक गीत बेहद लोकप्रिय हुआ था। इस गीत के बोल थे "जुनेली रात मा" और इस गीत को लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी ने अपनी आवाजें दी थी। जब इस गीत को मैंने ( अपनी आदत के अनुसार में दिन में कुछेक मिनट रेडियो ट्यून करके सुन ही लेता हूँ ) सुना तो पाया कि इस गीत के बोल नेपाली भाषा में है , तो मुझे सहज इस गीत के ऊपर और अधिक जान्ने की जिज्ञासा हुई सो श्रीमान गूगल के दरबार में पहुंचा तो उन्होंने सूचना दी कि यह गीत विख्यात गीतकार मजरूह सुलतानपुरी और संगीतकार सचिन देव बर्मन की रचना है । इतना जानने के बाद मैंने फिर यूट्यूब में जाकर इस गीत के वीडियो को देखा तो लगभग सकपका के रह गया ।
हुआ दरअसल ऐसा कि जो गीत मैंने अब तक सुना तो उसे देखकर एक गंभीर समस्या "पहचान" की ओर बरबस ध्यान चला गया । इस गाने में नेपाली गीत का इस्तेमाल आदिवासियों के पारंपरिक गीत लोकगीत के रूप में हुआ है, जो बेहद आपत्तिजनक है । भारत में रहने वाले भारतीय मूल के गोरखाओ का अपना वजूद रहा है और इन्होने कभी भी घूमंतू और कबिलेनुमा जीवन को व्यतीत नहीं किया है। नेपाली भाषा के प्रयोग की मैं सराहना करता हूँ और साथ ही इस फिल्म में जो कुछ बताया और दिखाया गया , उससे मैं इत्तेफाक नहीं रखता
लेकिन लता जी मंगेशकर की आवाज़ में मधुर संगीत में नेपाली परिवेश का सम्मान करना है।
हुआ दरअसल ऐसा कि जो गीत मैंने अब तक सुना तो उसे देखकर एक गंभीर समस्या "पहचान" की ओर बरबस ध्यान चला गया । इस गाने में नेपाली गीत का इस्तेमाल आदिवासियों के पारंपरिक गीत लोकगीत के रूप में हुआ है, जो बेहद आपत्तिजनक है । भारत में रहने वाले भारतीय मूल के गोरखाओ का अपना वजूद रहा है और इन्होने कभी भी घूमंतू और कबिलेनुमा जीवन को व्यतीत नहीं किया है। नेपाली भाषा के प्रयोग की मैं सराहना करता हूँ और साथ ही इस फिल्म में जो कुछ बताया और दिखाया गया , उससे मैं इत्तेफाक नहीं रखता
लेकिन लता जी मंगेशकर की आवाज़ में मधुर संगीत में नेपाली परिवेश का सम्मान करना है।
आज को जुनेली रात मा - तलाश (1969)
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